अष्टान्हिका महापर्व क्या है?
संसार सागर से पार होने के लिए नौका के समान सबल निमित्त है भक्ति। भक्ति भी वह, जो समीचीन, दृढ़ और यथार्थ हो। जैन श्रावक भक्तिभावपूर्वक अपार श्रद्धा से ‘अष्टान्हिका पर्व’ में सिद्धचक्र महामण्डल विधान करते हैं। इसे करके व्यक्ति अपने जीवन को धन्य मानते हैं। जैन श्रावक के षट्कर्तव्यों में देवपूजा मुख्य कर्तव्य है। जैनाचार्य पूज्य कुंदकंद स्वामी, समंतभद्रस्वामी, उमास्वामी, पुष्पदंत, वीरसेनाचार्य, जिनसेन आदि ने देवपूजा का विभिन्न ग्रंथों में उल्लेख किया है। देवोपासना के लिए संयमपूर्वक भक्ति एवं साधना को ही प्रशस्त माना गया है। देवोपासना के लिए विभिन्न अवलंबनों में महापूजा विधान अनुष्ठान एवं संकल्प पूर्वक, शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पुण्यार्जन कर कर्मक्षय करने का उपदेश परंपरा से प्राप्त है।
जैनधर्म के प्रमुख पर्वों में अष्टान्हिका महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह पर्व वर्ष में तीन बार आठ-आठ दिन तक मनाया जाता है। पर्व के दौरान जैन श्रावक संयम से रहते हैं, व्रत-उपवास रखते हैं और आठ दिन तक अधिकांश समय जैन मंदिर में पूजा-पाठ, स्वाध्याय आदि में व्यतीत करते हैं। अभक्ष्यपदार्थों का त्याग करते हैं, रात्रि में भोजन नहीं करते। सिद्धचक्र विधान में आठ दिन में 2040 अध्य सिद्ध भगवान को समर्पित किए जाते हैं। अष्टान्हिका पर्व के संबंध में पूजा की स्थापना में लिखा है.
अष्टान्हिका महापर्व कब मनाते है?
कार्तिक फाल्गुन आषाढ़ के अंत आठ दिन मांहि । नन्दीश्वर स्वर जात हैं, हम पूजे इह ठाहिं ॥
अर्थात् कार्तिक, फाल्गुन, आषाढ़ महीने के अंतिम आठ दिन शक्लपक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक यह पर्व जैन श्रावक इन्द्र-इन्द्राणी देवी-देवता का काल्पनिक रूप धारण कर विधि- विधान व पूजा पाठ पूर्वक मनाते हैं। अष्टान्तिका पर्व के दौरान सम्पन्न होने वाले ‘सिद्धचक्र विधान’ की प्रत्येक पंक्ति व अक्षर अत्यंत हैं। मनन चिंतन करने वाले को उसका जो आनंद होता है, वह शब्दातीत है। इस विधान का सच्ची श्रद्धा-भक्ति से
जो पारायण करता है, उसके सभी संकट भी स्वतः दूर हो जाते हैं।
सिद्धचक्र विधान का शाब्दिक अर्थ है-
सिद्ध : समस्त कर्मों का अभाव करके जो लोकाग्र स्थित सिद्धलोक में पहुंच चुके हैं, संसार जिनका सदा के लिए छूट गया है, वह ‘सिद्ध’ कहलाते हैं।
चक्र : समूह, देवताओं द्वारा या देवताओं का रूप धारण कर सामूहिक विशेष पूजन करना ‘चक्र’ कहलाता है ।
विधान : कानून, विधि, नियम। जैसे प्रत्येक कार्यों का विधान है, उसी प्रकार संसार अवस्था से सिद्धत्व मोक्ष अवस्था प्राप्त करने तक का भी धार्मिक विधान है, जिसमें आत्मा को परमात्मा बनाने का विधि वर्णित हैं, उसका नाम विधान है। इस विधान में आठ पूजा हैं। इस विधान को दूने- दूने उत्साह से आठ दिन में किया जाता है। इसमें सिद्ध भगवान के आठ गुणों से प्रारम्भ कर दूने-दूने गुणों की आठ दिन 1024 गुणों तक बड़े उत्साह से पूजा करते हैं। प्रथम पूजा में आठ कर्मों के नष्ट होने से प्रगट होने वाले आठ मूल गुणों की पूजा की गई है। दूसरी पूजा में सिद्ध भगवान के अचलत्व, अमरत्व एवं अजरत्व आदि सोलह गुणों की पूजा की जाती है। तीसरी पूजा पर्व के तीसरे दिन में सिद्ध भगवान के शुद्ध चेतनत्व, शुद्धज्ञान एवं शुद्ध स्वरूप आदि 32 गुणों की पूजा की जाती है। तीसरी पूजा में चौसठ गुणों की पूजा की जाती है, जिसमें चौसठ ऋद्धियों का वर्णन किया गया है। पांचवीं पूजा में एक सौ अट्ठाइस गुणों की पूजा की जाती है। इसमें सिद्ध भगवान के 108 गुणों की पूजा होती है। छठवीं पूजा में सिद्ध भगवान के दो सौ छप्पन गुणों की पूजा की जाती है। इसमें कर्मों की 148 उत्तर प्रकृतियों के स्वरूप को कहा गया है। सातवें दिन 512 गुणों की पूजा होती है। आठवीं पूजा में सिद्ध भगवान के 1024 गुणों की पूजा की गई है, जिसमें भगवान के 1008 नामों के स्वरूप का कथन कर उन्हें अर्घ समर्पित किए जाते हैं। यह पूरा आयोजन कुशल विधानाचार्य के निदेशन में संगीत की मधुर ध्वनि के बीच संपन्न होता है। रात्रि विद्वानों द्वारा प्रवचन, आरती, सांस्कृतिक कार्यक्रम नाटक, प्रतियोगिताएं आदि आठ दिन तक होते हैं। सिद्धचक्र विधान के अगले दिन 1008 कलशों से भगवान का महामस्तकाभिषेक होता है, शांतिधारा की जाती है। विश्वशांति महायज्ञ किया जाता है तथा नगर-नगर में विशाल जुलूस व शोभायात्रा निकाली जाती है। अष्टान्हिका पर्व में सिद्धचक्र विधान भक्ति पूर्वक करने से मैना सुंदरी नाम की कन्या और राजा श्रीपाल ने प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति की थी। मैना सुंदरी ने इस पर्व में विधान के माध्यम से अपने पति राजा श्रीपाल सहित 700 कुष्ठ रोगियों का रोग दूर किया और उनका शरीर कामदेव सा सुंदर कर दिया। यह सत्य कथानक ‘श्रीपाल चरित्र’ नाम के ग्रंथ में विस्तार से वर्णित है। अष्टान्हिका पर्व के आठ दिनों में बच्चों, युवा वर्ग, वृद्ध सभी में भक्ति-भाव देखने योग्य होता है। सभी लोग अपनी शक्ति अनुसार व्रत-उपवास रखते हैं तथा पूजन विधान में सम्मिलित होते हैं।